साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाठी-चार्ज में जब ‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई. तो 10 दिसंबर, 1928 को लाहौर में क्रांतिकारियों की एक बैठक बुलाई गई. जिसकी अध्यक्षता दुर्गा देवी ने की. दुर्गा देवी ने सबसे पूछा कि आप में से कौन स्कॉट की हत्या का बीड़ा उठा सकता है? भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू और चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने हाथ उठा दिए. पहले सुखदेव ये भूमिका अकेले निभाना चाहते थे. लेकिन उनकी मदद के लिए चार और कॉमरेड्स भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद और जयगोपाल को चुना गया.
17 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह और राजगुरु ने शाम 4 बजे अंग्रेज़ अधिकारी सैंडर्स को जान से मारकर लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया. तीन दिन बाद सुखदेव भगवतीचरण वोहरा के घर गए. जो उस समय भूमिगत चल रहे थे…
उन्होंने उनकी पत्नी दुर्गा देवी से पूछा, ‘क्या आप के पास कुछ रुपए होंगे?… दुर्गा ने उन्हें 500 रुपए दे दिए… जो उनके पति ने उन्हें दिए थे… सुखदेव ने उनसे कहा, कुछ लोगों को लाहौर से बाहर निकालना है… क्या आप उनके साथ लाहौर से बाहर जा सकती हैं?… उन दिनों दुर्गा भाभी लाहौर के महिला कॉलेज में हिंदी की अध्यापिका थीं… तीन चार दिनों में क्रिसमस की छुट्टियाँ होने वाली थीं…. सुखदेव ने कहा कि वो उन्हें क्रिसमस से पहले ही छुट्टियाँ दिलवा देंगें…
अगली सुबह यानी 20 दिसंबर को भगत सिंह एक अफ़सर जैसी वेशभूषा में ताँगे पर सवार हुए… उन्होंने एक ओवरकोट पहन रखा था… उन्होंने कोट के कॉलर को ऊँचा कर रखा था… जिससे उनका चेहरा न दिखाई दे… उनके साथ कीमती साड़ी और ऊँची हील पहने दुर्गा भाभी थीं… जो उनकी पत्नी के रूप में यात्रा कर रही थीं… भगत सिंह की गोद में दुर्गा भाभी का तीन साल का बेटा शची था… उनके अर्दली के वेश में राजगुरु थे… भगत सिंह और राजगुरु दोनों के पास लोडेड रिवॉल्वर थी…. लाहौर रेलवे स्टेशन पर इतनी पुलिस थी कि वो एक किले जैसा दिखाई देने लगा था… इस यात्रा के लिए भगत सिंह का नाम रणजीत और दुर्गा भाभी का नाम सुजाता रखा गया था… उस ज़माने में ट्रेन पर सवार होने से पहले हर फ़र्स्ट क्लास के यात्री को अपना नाम बताना पड़ता था… भगत सिंह ने टीसी को अपना नाम बताने के बजाए अपना टिकट वेव कर दिया… जब ये लोग अपने डिब्बे में पहुँचे… तो वहाँ मौजूद एक पुलिसकर्मी ने अपने साथी से फुसफुसा कर कहा, ‘ये लोग साहब हैं… बड़े अफ़सर हैं जो अपने परिवार के साथ यात्रा कर रहे हैं…. राजगुरु इन दोनों के नौकर बन कर तीसरे दर्जे के डिब्बे में सफ़र कर रहे थे… थोड़ी देर में देहरादून एक्सप्रेस ने लाहौर स्टेशन छोड़ दिया… वो उन अंग्रेज़ अफ़सरों की नाक के बीच से निकल आए जो प्लेटफ़ार्म से ट्रेन पर सवार अपने बीबी बच्चों को रुमाल हिला रहे थे…’ उस समय स्टेशन पर भगत सिंह की तलाश में 500 सुरक्षाकर्मी तैनात थे… गाड़ी के कानपुर पहुँचने पर उन तीनों ने कलकत्ता के लिए ट्रेन पकड़ी… इस बीच जासूसों को चकमा देने के लिए भगत सिंह ने पूरा ड्रामा किया… पूरी यात्रा को स्वाभाविक रूप देने के लिए साहब चाय पीने के लिए लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर उतरे… नौकर बच्चे का दूध लेने के लिए अलग चला गया…. दूध देने के बाद राजगुरू अलग दिशा में चले गए… यहीं से दुर्गा भाभी ने अपनी सहयोगी सुशीला दीदी को कलकत्ता तार भेजा जिसमें लिखा था ‘कमिंग विद ब्रदर- दुर्गावती.’ उन दिनों दुर्गा भाभी के पति भगवती चरण वर्मा… सुशीला दीदी के पास ही रुके हुए थे… वो दोनों तार पाकर हैरान थे कि ये दुर्गावती कौन है… जो अपने भाई के साथ कलकत्ता आ रही है…
बहरहाल, 22 दिसंबर, 1928 की सुबह सुशीला दीदी और भगवतीचरण वोहरा दुर्गा भाभी को लेने कलकत्ता के हावड़ा स्टेशन पहुंचे… उन दिनों भगवतीचरण वर्मा फ़रार थे इसलिए वो रेलवे कुली के वेष में दाढ़ी बढ़ाए घुटनों तक की धोती पहने हुए थे… वो अपनी पत्नी दुर्गा, बेटे शची और भगत सिंह को देख कर ख़ुशी से भर गए… अचानक उनके मुँह से निकला, ‘दुर्गा तुम्हें आज पहचाना.’
दुर्गा भाभी का जन्म 7 अक्तूबर, 1907 को शहजादपुर, इलाहाबाद में हुआ था…. उनके पिता बाँके बिहारीलाल भट्ट इलाहाबाद में ज़िला न्यायाधीश थे… सन 1918 में उनका विवाह मशहूर स्वतंत्रता सेनानी भगवती चरण वोहरा से हो गया… तीन दिसंबर, 1925 को उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई… अपने पति के साथ रहते उन्होंने क्रांतिकारियों का साथ देना शुरू कर दिया था… सहयोगी क्रांतिकारियों को जेल में जो कपड़े भेजे जाते थे, दुर्गा भाभी उनकी तुरपन खोल कर उन्हें कोडवर्ड में संदेश लिखकर भेजती थीं… कागज़ पर मदार के दूध और प्याज़ के रस से संदेश लिख कर भेजा जाता था… दूध या रस सूखने के बाद वो कोरा कागज़ दिखता था… जिसे जेल में उनके सहयोगी आँच दिखाकर आसानी से पढ़ लेते थे….
बम विस्फोट में अपने पति की शहादत के बाद वो अपने एक परिचित केवल कृष्ण के घर पर 15 दिनों तक एक मुस्लिम महिला बन कर रहीं… पड़ोसियों से कहा गया कि वो पर्दानशीं हैं…. उनके शौहर केवल कृष्ण के मित्र हैं और उस समय हज पर गए हैं…. वो जब तक नहीं आ जाते वो हमारे साथ रहेंगी. मुझे दुर्गा भाभी ने बताया था कि वो दो बार जयपुर से अपने दल के सदस्यों के लिए पिस्तौल और रिवॉल्वर लेकर आईं थीं और अंग्रेज़ पुलिस को उन पर रत्ती भर भी शक नहीं हुआ था… भगत सिंह को कलकत्ता छोड़ने के बाद दुर्गा भाभी लाहौर वापस लौट आईं थीं और अपने अध्यापन कार्य में व्यस्त हो गईं थीं… सन 1930 में चंद्रशेखर आज़ाद सोच रहे थे कि क्रांतिकारी गतिविधियाँ पूरे भारत में तेज गति से नहीं हो पा रही हैं… इसलिए उन्होंने दुर्गा भाभी, विश्वनाथ वैशम्पायन और सुखदेव को बंबई भेजा… वहीं तय हुआ कि वो लोग पुलिस कमिश्नर लार्ड हैली की हत्या कर दें…. उनकी मोटर कार लैमिंग्टन रोड के पुलिस स्टेशन को पास खड़ी थी… तभी उन्हें मलाबार हिल की ओर से एक कार आती दिखाई दी… उन्हें लगा कि कार पर गवर्नर का झंडा लगा है… कार से एक अंग्रेज़ अफ़सर निकला… पृथ्वी सिंह आज़ाद ने आदेश दिया, ‘शूट’…. दुर्गा भाभी ने तुरंत गोलियाँ चलाईं…. सुखदेव ने भी गोलियाँ चलाईं…. गोलीबारी में सार्जेंट टेलर और उनकी पत्नी मारे गए… दुर्गा भाभी के ड्राइवर जनार्दन बापट ने कार को फ़ौरन भगा लिया… घटना के फ़ौरन बाद दुर्गा देवी और सुखदेव राज कानपुर के लिए रवाना हो गए…. बाद में दुर्गा भाभी ने इस घटना का विवरण देते हुए मुझे बताया जब हम बंबई से चले तो हम बहुत भयभीत थे… हमें देखकर चंद्रशेखर आज़ाद ग़ुस्से से लाल हो गए… यदि योजना सफल हो जाती तो आज़ाद शायद उसकी त्रुटियों पर ध्यान नहीं देते, लेकिन हैली की जगह पुलिस सार्जेंट और उसकी पत्नी की हत्या जिसमें व्यर्थ का जोखिम था… उन्हंट बिल्कुल स्वीकार नहीं था… लेकिन कुछ देर गुस्से में रहने के बाद आज़ाद सहज हो गए…
जिस दिन भगत सिंह ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंका, दुर्गा भाभी उनसे ख़ास तौर से मिलने दिल्ली आईं थीं…. इसके लिए उन्हें उनके पति ने उनसे स्यालकोट से तुरंत सुशीला दीदी के साथ एक दो दिन के लिए दिल्ली आने को कहा था… संदेश मिलते ही उन्होंने लाहौर के लिए बस ली और वहाँ से रात भर ट्रेन का सफ़र कर आठ अप्रैल को तड़के दिल्ली पहुँच गए… वो कुदेसिया गार्डेन गए… जहाँ सुखदेव भगत सिंह को उनसे मिलवाने लाए थे…. वो अपने साथ लाहौर से खाना लाए थे जिसे सबने मिलकर खाया….
सुशीला दीदी ने अपनी उंगली काटकर ख़ून से भगत सिंह का तिलक किया… उन्हें उस समय बिल्कुल पता नहीं था कि भगत सिंह किस मिशन पर जा रहे हैं… उन्हें बस ये आभास था कि वो किसी ‘एक्शन’ के लिए जा रहे हैं… जब वो एसेंबली के पास पहुंचीं… तो वहाँ चारों तरफ़ पुलिस ही पुलिस थी… उन्होंने देखा कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को एक पुलिस गाड़ी में बैठाकर ले जाया जा रहा है… जैसे ही उनकी गोद में बैठे मेरे बेटे शचि ने भगत सिंह को देखा वो ज़ोर से चिल्लाया ‘लंबू चाचा’…. उन्होंने तुरंत हाथ से उसका मुँह बंद कर दिया… भगत सिंह ने भी शचि की आवाज़ सुनी और वो हमारी तरफ़ देखने लगे लेकिन एक पल में वो हमारी आँखों से ओझल हो गए….
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फाँसी की सज़ा सुनाए जाने के बाद से ही चंद्रशेखर आज़ाद इस फाँसी की सज़ा को रुकवाने के प्रयास में लग गए…. उन्होंने दुर्गा भाभी को महात्मा गाँधी से मिलने दिल्ली भेजने का फ़ैसला किया…. हालाँकि भगत सिंह अपनी फाँसी की सज़ा को रुकवाने के ख़िलाफ़ थे… 26 फ़रवरी, 1931 को गाज़ियाबाद के प्रमुख कांग्रेसी नेता रघुनंदन शरण दुर्गा भाभी और सुशीला देवी को लेकर डॉक्टर एमए अंसारी की दरियागंज स्थित कोठी पर रात 11 बजे पहुँचे… जहां गांधीजी ठहरे हुए थे…. कोठी के बाहर जवाहरलाल नेहरू टहल रहे थे… वो दोनों महिलाओं को कोठी के अंदर ले गए… दुर्गा भाभी ने गाँधीजी को बताया कि वो चंद्रशेखर आज़ाद के सुझाव पर उनसे मिलने आई हैं… और चाहती हैं कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फाँसी रुकवाने के लिए वो कोशिश करें… उन्होंने उन्हें आज़ाद का वो संदेश भी दिया कि अगर महात्मा इन तीनों के मृत्यु दंड को बदलवा सकें… तो क्रांतिकारी लोग उनके सामने आत्मसमर्पण कर देंगे…. लेकिन गांधीजी ने इस सुझाव को नहीं माना… उन्होंने कहा कि वे व्यक्तिगत रूप से भगत सिंह को चाहते हैं… लेकिन उनके तरीके से सहमत नहीं हैं…. गांधीजी का जवाब दुर्गा भाभी को अच्छा नहीं लगा और वो उन्हें नमस्कार कर वापस चली आई थीं.
भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरू को 23 मार्च,1931 को फ़ाँसी पर चढ़ाया जा चुका था… इससे कुछ दिन पहले 27 फ़रवरी, 1931 को चंद्रशेखर आज़ाद भी पुलिस मुठभेड़ में अपने प्राण न्योछावर कर चुके थे…. उस समय दुर्गा भाभी ने तय किया कि वो आत्मसमर्पण कर दें और खुद को गिरफ़्तार करवा दूसरे माध्यमों से देश की सेवा करें…. 12 सितंबर, 1931 को दुर्गा भाभी का इस बारे में लाहौर के समाचारपत्रों में बयान प्रकाशित हुआ… दिन के 12 बजे पुलिस ने उनके निवास स्थान से उन्हें गिरफ़्तार कर लिया…. उन्हें लाहौर के किले ले जाया गया… वहाँ एसएसपी जैंकिन्स ने उन्हें धमकाते हुए कहा, “तुम्हारे साथियों से हमें तुम्हारे बारे में सब पता चल चुका है… तुम्हारा सारा रिकार्ड हमारे पास है… उन्होंने फ़ौरन जवाब दिया, “अगर आपके पास मेरे ख़िलाफ़ सबूत हैं तो मुझ पर मुक़दमा चलाइए, वर्ना मुझे छोड़ दीजिए… लेकिन जैंकिंन्स ने उनकी बात नहीं मानी… जेल में उन्हें पहली रात ख़ूँख़ार महिला अपराधियों के साथ रखा गया… जब पुलिस उनके ख़िलाफ़ कोई प्रमाण नहीं जुटा पाई तो दिसंबर, 1932 में उन्हें जेल से रिहा तो कर दिया गया… लेकिन अगले तीन सालों तक उनके लाहौर से बाहर जाने पर पाबंदी लगा दी गई… सन 1936 में दुर्गा भाभी लाहौर से गाज़ियाबाद आ गईं और वहाँ प्यारेलाल गर्ल्स हाई स्कूल में पढ़ाने लगीं… सन 1940 में उन्होंने लखनऊ मांटेसरी स्कूल की स्थापना की… बाद में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसके भवन का उद्घाटन किया… अप्रैल, 1983 में उन्होंने विद्यालय से अवकाश ले लिया क्योंकि वो अस्वस्थ रहने लगी थीं…. 15 अक्तूबर, 1999 को दुर्गा भाभी ने इस दुनिया को अलविदा कहा… दुर्गा भाभी को भारत की ‘आयरन लेडी’ भी कहा जाता है। बहुत ही कम लोगों को ये बात पता होगी कि जिस पिस्तौल से चंद्र शेखर आजाद ने खुद को गोली मारकर बलिदान दिया था, वह पिस्तौल दुर्गा भाभी ने ही आजाद को दी थी…. दुर्गा भाभी भले ही भगत सिंह, सुख देव और राजगुरू की तरह फांसी पर न चढ़ी हों लेकिन कंधें से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ती रहीं। स्वतंत्रता सेनानियों के हर आक्रमक योजना का हिस्सा बनी। दुर्गा भाभी बम बनाती थीं तो अंग्रेजो से लोहा लेने जा रहे देश के सपूतों को टीका लगाकर विजय पथ पर भी भेजती थीं।