इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि किसी मामले के आरोपी के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 82 (फरार घोषित होना) के तहत कार्रवाई की गई है। इसके बावजूद वह कोर्ट के समक्ष हाजिर नहीं हो रहा है तो पुलिस प्राथमिकी दर्ज नहीं कर सकती है और न ही अदालतें उसका संज्ञान ले सकती हैं।
यह सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए)(1) के तहत प्रतिबंधित हैं। क्योंकि, यह संज्ञेय अपराध नहीं है।अदालत के आदेश पर केवल परिवाद (शिकायत) दर्ज हो सकता है। इस आधार पर कोर्ट ने याची के खिलाफ अलीगढ़ के लोधा थाने में दर्ज प्राथमिकी रद्द कर दी। कहा कि उसके आदेश की कॉपी सभी जिला अदालतों और जेटीआरआई लखनऊ को भेज दी जाए। यह आदेश न्यायमूर्ति अंजनी कुमार मिश्रा व अरुण सिंह देशवाल की खंडपीठ ने सुमित व अन्य की याचिका को स्वीकार करते हुए दिया है।
हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि मामले से संबंधित अदालत और किसी कानूनी बाधा के न होने पर याचियों के खिलाफ परिवाद दर्ज करने के लिए स्वतंत्र हैं। कोर्ट ने कहा कि संज्ञेय अपराध में स्वयं पुलिस को किसी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार करने की अनुमति है। इसलिए एफआईआर का पंजीकरण किया जाता है। संज्ञेय अपराध के तहत होने वाली कार्रवाई से व्यक्ति की स्वतंत्रता प्रभावित होती है, जबकि 174-ए का अपराध संज्ञेय की श्रेणी में नहीं है।