पुणे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने शनिवार को दावा किया कि 1857 के बाद अंग्रेजों ने व्यवस्थित तरीके से देशवासियों में अपनी परंपराओं और पूर्वजों के प्रति आस्था को कम करने की साजिश रची।
भागवत ने कहा कि अंधविश्वास तो होता है, लेकिन आस्था कभी अंधी नहीं होती। उन्होंने कहा कि कुछ प्रथाएं और रीति-रिवाज जो चले आ रहे हैं, वे विश्वास हैं। कुछ गलत हो सकते हैं तो उन्हें बदलने की जरूरत है।
‘परंपराओं के प्रति आस्था को खत्म करने की कोशिश की गई’
जी बी देगलुरकर की एक किताब के विमोचन के अवसर पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा, ‘1857 (जब ब्रिटिश राज ने औपचारिक रूप से भारत पर शासन करना शुरू किया) के बाद अंग्रेजों ने हमारे मन से आस्था को खत्म करने के लिए व्यवस्थित प्रयास किए। हमारी परंपराओं और अपने पूर्वजों में जो आस्था थी, वह खत्म हो गई।’
उन्होंने कहा कि ‘भारत में मूर्ति पूजा होती है जो आकार से परे निराकार से जुड़ी है। हर किसी के लिए निराकार तक पहुंचना संभव नहीं है, इसलिए हर किसी को कदम दर कदम आगे बढ़ना होगा। इसलिए मूर्तियों के रूप में एक आकार बनाया जाता है।’
संघ प्रमुख ने बताया मूर्तियों के पीछे का विज्ञान
आरएसएस प्रमुख ने कहा कि ‘मूर्तियों के पीछे एक विज्ञान है, भारत में मूर्तियों के चेहरे पर भावनाएँ भरी होती हैं जो दुनिया में हर जगह नहीं मिलती हैं। राक्षसों की मूर्तियों में दर्शाया गया है कि वे किसी भी चीज़ को अपनी मुट्ठी में कसकर पकड़ लेते हैं। राक्षसों की प्रवृत्ति हर चीज़ को अपने हाथ में रखने की होती है।
हम अपनी मुट्ठी में (अपने नियंत्रण में) लोगों की रक्षा करेंगे। इसलिए वे राक्षस हैं। लेकिन भगवान की मूर्तियाँ कमल को थामे हुए धनुष को भी थामे रहती हैं। उन्होंने कहा कि साकार से निराकार की ओर जाने के लिए एक दृष्टि होनी चाहिए। जो लोग आस्था रखते हैं, उनके पास दृष्टि होगी।’