नई दिल्ली। यह वाकई विडंबना है कि जब विपक्षी गठबंधन इंडिया ने सत्ताधारी एनडीए को कड़ी टक्कर दी है, तब भी अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी (AAP) को बड़ा झटका लगा है। लोकसभा चुनाव से साफ होता है कि ब्रैंड केजरीवाल की विश्वसनीयता में भारी बट्टा लगा है।
AAP ने तो चुनाव प्रचार का आधार ही यही बनाया कि शराब घोटाले के आरोप में सीएम केजरीवाल को जेल भेजने के खिलाफ जनता एकजुट हो और बीजेपी-मोदी को जवाब दे।
आप की इस मांग को मुताबिक अगर चुनाव परिणाम को जनमत संग्रह का नतीजा माना जाए तो इसमें कोई दो राय नहीं कि अरविंद केजरीवाल और आप से दिल्लीवासियों का भरोसा डिगा ही नहीं, बल्कि भरोसे की जड़ें हिल गईं।
‘जेल का जवाब वोट से’ का आह्वान फुस्स
आप ने अपने प्रचार अभियान का थीम ‘जेल का जवाब वोट से’ के नारे को बनाया। जनता ने वोट दो दिया, लेकिन जेल के जवाब में नहीं बल्कि जेल के समर्थन में। सुप्रीम कोर्ट ने प्रचार के लिए ही अरविंद केजरीवाल को 21 दिनों के लिए जेल से बाहर किया था।
अब सवाल है कि आप को सुप्रीम कोर्ट से मिली इस सहूलियत का क्या फायदा हुआ? यह सवाल इसलिए और बड़ा बन जाता है कि इसस बार तो आप ने दिल्ली में कांग्रेस के साथ गठबंधन भी किया था। आप के लिए पंजाब का चुनाव परिणाम तो दिल्ली से भी भयावह है।
पंजाब में आप सत्ता में है, फिर भी 11 सीटों के साथ वहां कांग्रेस नंबर वन की पार्टी बनी जबकि आप सिर्फ तीन सीटों तक सिमट गई। उसे गुजरात, असम और हरियाणा से भी उम्मीद की कोई किरण नहीं मिली।
विपक्षी गठबंधन में घटेगा केजरीवाल का मान
इस चुनाव परिणाम ने विपक्षी गठबंधन में प्रधानमंत्री पद के दावेदारी तो छोड़िए, आप की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया। गठबंधन में आप की सौदेबाजी की शक्ति काफी हद तक घट जाए जाएगी क्योंकि ज्यादा शक्तिशाली क्षेत्रीय क्षत्रपों की दखल बढ़ने वाली है।
हालांकि, आप यह उम्मीद लगाकर थोड़ी राहत पा सकती है कि केंद्र में बैशाखी के दम पर बनी बीजेपी की सरकार अब एजेंसियों को उस हद तक पीछे नहीं लगा पाएगी जितना वो अकेल दम बर सरकार बनाकर कर रही थी।
दूसरी तरफ एक डर भी है कि अगर केजरीवाल जेल में रहते हुए सीएम बने रहेंगे तो दिल्ली में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव से पहले ही राज्यपाल शासन लागू हो सकता है।
जनता ने खारिज कीं AAP की सारी दलीलें
आप ने भाजपा और कांग्रेस जैसी पारंपरिक पार्टियों को भ्रष्ट बताकर खुद को बेहतर विकल्प के रूप में पेश किया था। जनता ने उसके आश्वासन पर यकीन किया और लगाता सत्ता दिलाई। लेकिन जब उसने उसी कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया तो आप की कोई भी दलील जनता के दिलों में उतर नहीं पाई।
भाजपा का यह आरोप कि केजरीवाल दरअसल अवसरवादी और सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं, जनता के गले उतर गया। दिल्ली की जनता ने आप की यह दलील भी नहीं मानी कि उसे केंद्र की तानाशाही से लड़ने के लिए कांग्रेस से गठबंधन को मजबूर होना पड़ा।
दो साल में ही क्या से क्या हो गए केजरीवाल!
पंजाब विधानसभा चुनावों में दमदार जीत हासिल हुई तो अरविंद केजरीवाल की छवि एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर मजबूत होने लगी। लेकिन दो वर्षों में ही उसी पंजाब ने उसे तगड़ा झटका दिया। उसे सिर्फ केवल तीन सीटें संगरूर, आनंदपुर साहिब और होशियारपुर जीती। कांग्रेस को 13 में से सात सीटें मिलीं।
पंजाब में आप और कांग्रेस, दोनों की राज्य इकाइयों ने गठबधन में नहीं लड़ने की जिद की क्योंकि उन्हें लगा कि चुनाव मैदान में अलग-अलग उतरना बेहतर होगा। यह फैसला स्पष्ट रूप से कांग्रेस के पक्ष में गया लेकिन आप पूरी तरह चित हो गई।
आप और केजरीवाल के लिए हर जगह से मायूसी
गुजरात में भी आप और कांग्रेस ने गठबंधन बनाकर चुनाव लड़े थे। आप ने दो निर्वाचन क्षेत्रों – भरूच और भावनगर पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से भावनगर कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे अहमद पटेल का गृह क्षेत्र है।
कांग्रेस ने 24 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से उसे एक पर ही जीत मिल सकी। भाजपा ने वहां 26 में से 25 सीटें जीतीं। आप को एक भी सीट नहीं मिली।
इसके अलावा, आप हरियाणा की कुरुक्षेत्र सीट भी भाजपा से हार गई जबकि हरियाणा में नौ सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस ने पांच सीटें जीतीं। केजरीवाल की पार्टी असम में भी दो निर्वाचन क्षेत्रों में पराजित हुई है। केजरीवाल आज भी दिल्ली और दूसरे प्रदेशों में पार्टी का चेहरा हैं।
आप और सरकार की बागडोर संभालने के लिए अभी तक दूसरा कोई नजर नहीं आ रहा है। ऐसे में उनकी पार्टी का आगे का रास्ता इस बात से तय होगा कि वो कितने समय तक जेल में रहते हैं और अपने समर्थकों को एकजुट रखते हुए पार्टी को अंदर से कितनी दूर तक चला पाते हैं।